स्वार्थ से भरे ये नेता क्या कभी भी जन नेता माने जा सकते हैं? यह वोट मांगने के लिए दर-दर भटकने का क्या औचित्य है।
आज देश को राजनेताओं की नहीं जननेताओं की आवश्यकता है राजनीति नहीं जननीति बनाने वाले लोकनायको की आवश्यकता है। देश की दो सबसे बड़ी पार्टियां अपने भीष्म पितामहों को आखिर किस मुंह से राजनेता मान लेती है जबकि कांग्रेस के महात्मा गांधी और भाजपा के दीनदयाल उपाध्याय वास्तविक अर्थों में जननेता थे, उन्होंने समाज को सुधारने के लिए देश को दिशा देने के लिए, लोगों का कल्याण करने के लिए सेवा भाव से इस क्षेत्र में कदम रखा था लेकिन अपने-अपने स्वार्थों के चलते उनके उत्कृष्ट कार्यो को कुटिल राजनीति का अमली जामा पहनाकर आखिर क्या साबित करना चाहते हैं। यह सच्चे राजनेता आज क्यों कोई जननायक जयप्रकाश नारायण नहीं बन सकता, क्यों सिर्फ यह सोचकर चुनाव लड़े जाते हैं कि 5 साल भ्रष्टाचार को किस तरह से गति देनी है और स्वयं का विकास कैसे करना है किस-किस से बंदियाॅं बांधनी है, कहाॅं साॅंठ-गाॅंठ करनी है, कैसे तोड़-बट्टे करना है, अपने हितों के लिए कैसे आम जनता का जीवन प्रभावित करना है। अपने अस्तित्व के लिए पूर्ण रूप से स्वार्थ से भरे ये नेता क्या कभी भी जन नेता माने जा सकते हैं?
यह एक बड़ा प्रश्न है और उससे भी बड़ा प्रश्न यह है कि क्या वर्षों से गुलामी की पीड़ा भोगने वाली भारत की जनता कभी वास्तव में अपने स्वतंत्रता के अधिकारों के प्रति सचेत हो सकेगी या फिर शोषण के भावों को अपनी नीयति समझ कर हमेशा की तरह चुप बैठेगी। आज गेंद जनता के पाले में है ओर उसे यह निर्धारित करना होगा कि क्या उसे हमेशा शोषण का शिकार होना है या अपने वोट की ताकत से राजनीति को जननीति बनने पर मजबूर करना है।