वरिष्ठ विज्ञानी केएनके उद्यानिकी महाविद्यालय डा. आरएस चुंडावत का कहना है कि मंदसौर के साथ ही उदयपुर व लखनऊ में भी अफीम फसल में थीबेन व मार्फीन का प्रतिशत बढ़ाने का शोध चल रहा है।
दवा उद्योग में मंदसौर के अफीम की बढ़ी मांग
– सीपीसी पद्धति से अफीम के उत्पादन में आई क्रांति
मंदसौर। मध्यप्रदेश, गंभीरतम रोगों में जीवनरक्षक दवाओं को बनाने में काम में आने वाले अफीम के उत्पादन की गुणवत्ता बढ़ाए जाने और अफीम की मादक पदार्थ के रूप में तस्करी पर नकेल कसने की महत्वकांक्षी योजना के तहत अफीम की खेती की नई पद्धति को सीपीएस को प्रायोगिक रूप से भारत सरकार के वित्त मंत्रालय ने लागू किया है। जिसके तहत अब अफीम उत्पाद का क्रय शासकीय केंद्रों पर केंद्रीय नारकोटिक्स विभाग की निगरानी में कड़े सुरक्षा प्रबंधों के बीच किया जा रहा है। इससे यह हुआ है कि अब मंदसौर के अफीम की मांग दवा उद्योग में तेजी से बढ़ी है।
गौरतलब है कि अफीम उत्पादन के लिए देश-दुनिया में पहचाने जाने वाले मंदसौर, नीमच क्षेत्र में अफीम की नई किस्म पर शोध किया जा रहा है। मंदसौर, उदयपुर और लखनऊ के कृषि वैज्ञानिक लगातार इस कोशिश में लगे हैं कि मार्फीन का प्रतिशत ज्यादा से ज्यादा मिलने लगे ताकि विदेशों में भारतीय अफीम की मांग बढ़ सकें। दरअसल, नींद, खांसी सहित अन्य दवाओं के निर्माण के लिए अफीम से प्राप्त उच्च कोटि की मार्फिन की मांग रहती है। फिलहाल इस कसौटी पर आस्ट्रेलिया में उत्पादित होने वाली अफीम सबसे अधिक खरी उतरती है, इसलिए दुनिया भर में दवा उद्योग आस्ट्रेलिया की अफीम को श्रेष्ठ मानता है। उसके बाद मंदसौर-नीमच व चित्तौड़ की अफीम का नंबर आता है।
चल रहा शोध
मंदसौर में उत्पादित अफीम की गुणवत्ता को बढ़ाने के लिए लगातार शोध हो रहा है। मंदसौर में चल रहे कृषि विज्ञानियों के शोध से मंदसौर में उत्पादित अफीम को इस तरह तैयार किया जाएगा कि वह इतनी उच्च गुणवत्ता की हो कि दुनिया भर का दवा उद्योग आस्ट्रेलियाई अफीम को टक्कर दे सके। मंदसौर के कैलाशनाथ काटजू उद्यानिकी महाविद्यालय सहित उदयपुर व लखनऊ में कृषि विज्ञानी इस तरह के शोध में जुटे हैं। इसमें अफीम के पौधों में फूल के रंगों के आधार पर मार्फिन व कोडीन फास्फेट का प्रतिशत तय किया जा सकेगा। शोध के तहत डोडा में ज्यादा मार्फिन वाली अफीम के उत्पादन के साथ ही फूलों के रंग से यह पता चल जाएगा कि कौन से पौधे में मार्फिन की गुणवत्ता उच्चतम स्तर की होगी। उन पौधों से निकलने वाले डोडा को दवा उद्योगों के लिए चिह्नित कर लिया जाएगा। आस्ट्रेलिया में अफीम की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए डोडा से कांसन्ट्रेट पापीस्ट्रा (सीपीएस) पद्धति से अफीम निकाली जाती है। इसी कारण वहां की अफीम की मांग अमेरिका, जापान व अन्य देशों की मेडिकल कंपनियां ज्यादा करती हैं। इसमें डोडा से सीधे अफीम निकालने की प्रक्रिया होती है। इसके उलट भारत में अब तक डोडा से पुरानी पद्धति लुणी-चिरनी से खेत में अफीम निकालने और उसे एकत्र कर नारकोटिक्स विभाग को देने की प्रक्रिया चल रही है। नारकोटिक्स विभाग नीमच व गाजीपुर में स्थित अल्केलाइड फैक्ट्री में इस अफीम को प्रोसेस कर कोडीन फास्फेट, मार्फिन व अन्य उपयोगी उत्पाद अलग-अलग करता है। इस पुरानी पद्धति से मार्फीन का प्रतिशत 4 से 6 के बीच होने की वजह से दवा कंपनियां मंदसौर की अफीम का उपयोग कम करती हैं।
सीपीएस पद्धति में अच्छे परिणाम
अब नई पद्धति से क्षेत्र के अफीम उत्पादक किसानों को नया बाजार मिलने की संभावना है। पहले अफीम की फसल में केवल गुलाबी रंग के फूल आते थे। कृषि विज्ञानी लगातार शोध कर रहे हैं और अभी तक जो अफीम की किस्मे बनाई है उनमें फूलों का रंग भी सफेद हो गया है। और शोध केंद्र पर तो अफीम में मार्फीन 15 प्रतिशत तक मिलने लगी है। जबकि खेतों में यह 10 से 12 प्रतिशत तक मार्फीन मिल रही है। नई अफीम नीति में केंद्र सरकार ने मार्फिन का 4.2 किग्रा प्रति हेक्टेयर से अधिक का औसत देने वाले किसानों को ही परंपरागत खेती के लिए पट्टे दिए हैं। वहीं एक नया प्रयोग करने के लिए 3.7 प्रतिशत से 4.2 प्रतिशत तक औसत वाले अपात्र किसानों को सीपीएस पद्धति में 6-6 आरी के हरे पट्टे दिए गए हैं। यह किसान पूरे डोडे नारकोटिक्स विभाग को सौंपे रहे हैं। इन डोडो से बिना चिराई के सीपीएस पद्धति से अफीम निकाली जा रही। भारत में यह पहली बार हो रहा है। वरिष्ठ विज्ञानी केएनके उद्यानिकी महाविद्यालय डा. आरएस चुंडावत का कहना है कि मंदसौर के साथ ही उदयपुर व लखनऊ में भी अफीम फसल में थीबेन व मार्फीन का प्रतिशत बढ़ाने का शोध चल रहा है। इसमे नई किस्मों में फूलों का रंग भी बदल रहा है। पहले पिंक फूल होते थे, अब सफेद हो गए है इसमें मार्फीन का प्रतिशत 10 से 12 प्रतिशत तक मिल रहा है। सीपीएस पद्धति में इसके अच्छे परिणाम मिलेंगे।